रावण को मारने वाले आखिर हम कौन ?

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रावण वेदशास्त्रों का प्रकांड विद्वान और संस्कृत मंत्र रचनाओं का अदभूत मर्मज्ञ और महापंडित था वहीं हम रावण को मारने वाले साधरण से हम मनुष्य लोग संस्कृत के पांच श्लोक भी ठीक से बोल नहीं पाते, मंत्रों की रचना करना तो दूर की बात हैं। आखिर हम किसी भी रूप में राम नहीं बन सकते हैं। क्योंकि रावण और रावण से जुड़ी बुराईयों को केवल और केवल एक राम जैसा मर्यादाओं का पालन करने वाला ही व्यक्ति मार सकता हैं। इससे यह साफ स्पष्ट होता हैं कि हमने अपनी बुराईयों को कभी भी समझने की कोई कोशिश ही नहीं की हैं। अर्थात् दूसरों कि बुराईयों को देखने, ईर्ष्या करने, जैसे तमाम अवगुणों को ही हमने अपनी जीवन शैली का एक प्रमुख अंग बना लिया हैं। शास्त्र कहते है कि जब कोई चीज या संग्रह आवश्यकता से अधिक हो जाती हैं तो वह निश्चित ही किसी ना किसी रूप में स्वयं ही हमारे पतन का एक प्रमुख कारण भी बन ही जाती हैं। जैसे कि रावण को बहुत अहंकार था, सत्ता का लोभ था, ताकत का मद था, ज्ञान का घमंड था, सत्ता विस्तार के प्रति अति क्रोध था, पुत्र का अति मोह था, देवताओं से द्वेष था, ऋषि मुनियों से ईर्ष्या थी, और ये सब कुछ भोग विलास, वैभव, सम्पन्नता और अमृत प्रात्ति रहने के बावजूद मन में सदैव एक भय भी था जो रावण को शांति से रहने नहीं देता था। यही भय और तमाम अवगुण एक दिन उसकी मृत्यु के कारण भी बनें।

ना भूतों ना भविष्यति। रावण के समान महाप्रतापी, प्रकांड विद्वान, त्रिलोक विजेता, नीतिकार और राजनीतिज्ञ ना तो पहले कोई हुआ और ना ही कोई होगा! रावण की लड़ाई प्रभू श्रीराम से थी। ना कि वानरसेना से। रावण को अमृत मिला परन्तु मुक्ति के लिए उसे प्रभू श्रीराम से ही संबंधित कोई कारण ढूंढना पड़ा। शास्त्रों के महापंडित बेहत्तर जानते हैं कि जो व्यक्ति भक्ति जानता हैं वह धर्म और अधर्म की बेहत्तर समझ रखता हैं। जब रावण को परमपिता ब्रम्हा और शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन के कई वरदान दिए परन्तु रावण को मुक्ति देने का कार्य श्री हरि ने स्वयं अपने पास रख लिया। एक भक्त के लिए प्रभू की महिमा को केवल प्रभू की योग माया ही जानती हैं साधारण मनुष्य या राक्षस नहीं। त्रेतायुग से अबतक केवल हम सब रावण में ही दोष देखकर उसे हर वर्ष मार रहे हैं किन्तु हमें अपने असंख्य दोष दिखाई नहीं दे रहे हैं। फिर हम रावण को मारने वाले आखिर कौन होते हैं ? सत्य तो यह हैं कि रावण से हमारा कोई संबंध नहीं हैं। और ना ही रावण ने हमारा किसी का कुछ बिगाड़ा था जो हम कलयुग में रावण को जलाकर मार रहे हैं। रावण को केवल वही मार सकता हैं जो सांसारिक जीवन में भी समस्त मर्यादाओं का शास्त्रसंगत पालन करता हो !

किन्तु आज रावण को वे लोग मार रहे हैं जो राजनीति में सत्ता का सुख भोग रहे हैं। भ्रष्टाचार से आकंठ भरे हुए हैं। अपने अंदर के रावण अर्थात् रावण की नकारात्मक प्रवृति वाले लोग जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष और भय इन दस अवगुणों से संबंध रखने वाले लोग ही आज रावण को मार रहे हैं। वहीं मर्यादाओं से जुड़े चंद लोग आज घरों में बैठकर रावण के इस तरह मारे जाने पर मन ही मन कलयुग की इन परिस्थितियों पर दुख भी महसूस करते हैं। यह कैसी विडंबना हैं कि रावण ने तो प्रभू राम से मुक्ति प्राप्त कर ली परन्तु हम लोग अपनी मुक्ति के लिए थोड़ा सा मर्यादित आचरण भी नहीं कर पा रहे हैं और चले हम रावण को मारने ! रावण के ये दसों अवगुण और बुराईयां आज तेजी से परिवार,समाज,समिति, समुदाय,संगठन और असंख्य संस्थाओं में तेजी से दीमक की तरह फैलती जा रही हैं। आखिर इन बुराईयों में जीने वाला एक साधारण मनुष्य एक महान शिवभक्त रावण को कैसे मार सकता हैं ? जिसने एक एक करके दस बार अपना सिर काटकर शिवजी को हंसते हंसते चढ़ा दिए। और आज हम एक आलपिन और सूई की नोक को भी सहन नहीं कर पाते तो फिर हम रावण को कैसे मार सकते हैं ? आखिर हम किसी भी रूप में राम नहीं बन सकते हैं। क्योंकि रावण और रावण से जुड़ी बुराईयों को केवल और केवल एक राम जैसी मर्यादाओं का पालन करने वाला ही मार सकता हैं। इससे यह साफ स्पष्ट होता हैं कि हमने अपनी बुराईयों को कभी भी समझने की कोई कोशिश ही नहीं की हैं। अर्थात् दूसरों कि बुराईयों को देखने, ईर्ष्या करने, जैसे तमाम अवगुणों को ही हमने अपनी जीवन शैली का एक प्रमुख अंग बना लिया हैं। शास्त्र कहते है कि जब कोई चीज या संग्रह आवश्यकता से अधिक हो जाता हैं तो वह निश्चित ही किसी ना किसी रूप में स्वयं ही हमारे पतन का एक प्रमुख कारण भी बन ही जाता हैं। जैसे कि रावण को बहुत अहंकार था, सत्ता का लोभ था, ताकत का मद था, ज्ञान का घमंड था, सत्ता विस्तार के प्रति अति क्रोध था, पुत्र का अति मोह था, देवताओं से द्वेष था, ऋषि मुनियों से ईर्ष्या थी, और ये सब कुछ भोग विलास, वैभव, सम्पन्नता और अमृत प्रात्ति रहने के बावजूद मन में सदैव एक भय भी था जो रावण को शांति से रहने नहीं देता था। यही भय और तमाम अवगुण एक दिन उसकी मृत्यु के कारण भी बनें। भारत में दीपावली और दशहरा पर्व हमारी सनातन संस्कृति के प्रमुख अंग हैं। रावण का मारा जाना और उन तमाम आताताई बुराईयों का दमन भी रावण के मृत्यु के साथ ही खत्म हो गया। श्रीराम के त्रेतायुग के बाद श्रीकृष्ण का द्वापरयुग आया। परन्तु द्वापर में किसी ने रावण का पूतला जलाकर रावण को नहीं मारा। क्योंकि श्रीकृष्ण भगवान ने स्वयं कई राक्षसों और स्वयं अपने मामा कंस का वध किया। तो हमें कंस से बाद का इतिहास समझना चाहिए ना कि त्रेतायुग का अनुकरण करना चाहिए। आज हम कलयुग में जी रहे हैं। जहां दुनिया में हर घर, परिवार, समाज, समुदाय संगठनों में कई तरह सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैचारिक दुष्यप्रवृतियां सुरसा के मुंह की तरह फैली हुई हैं।

कहते हैं कि आज इतने रावण पैदा हो चुके कि हमें उतने श्रीराम प्रभू जैसे आदर्श सांसारिक और मर्यादित पुरुषों की बहुत जरूरत भी हैं। आज हमारें आदर्श केवल किताबों में लिखें दबे पड़े हुए हैं। आदर्श की दुहाई देने के लिए सबमें एक जंगी प्रतिस्पर्धा बनी हुई हैं। हमें चिंतन करना होगा कि क्या हम सब सही मायने में रावण को मारने के बकदार हैं ? यदि नहीं तो हमें इस रूढिवादी परम्परा को भी समाज से तिलांजलि देने में ही भलाई हैं। हाल ही में चन्द्रपुर में गोंड समाज के पदाधिकारियों ने प्रेस वार्ता में रावण को अपना वंशज बताते हुए रावण दहन की परम्परा को बंद करने की मांग उठाई है। चाणक्य भी कहते हैं कि –” जो गुणवत्ता हमारे में नहीं हैं तो हमें दूसरों की बुराई पर अंगुली नहीं उठाना चाहिए। समय के गर्भ से जो घटित होता हैं वह तबतक ही प्रासंगिक रहता है जबतक समाज में उनका अनुकरण करने वाले आदर्श और मर्यादित पुरुष जिंदा रहते हैं। “ इसलिए अपने अंदर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष और घृणा, ईर्ष्या जैसी दुष्यप्रवृतियां मौजूद हैं उन्हें जड़ से खत्म करने आदर्श संकल्प लें। ना कि त्रेतायुग के रावण को कलयुग में मारने की यह परम्परा कानून रूप से निश्चित ही बंद होना चाहिए।

✍️ डां. तेजसिंह किराड़
वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद्